ख्वाबों के घरोंदों में,
एक झलक सी देखी है,
कहीं ज़िन्दगी, वो तुम तो नहीं?
आसमान में उड़ते परिंदों में,
एक जीवन की आशा की है,
कहीं आकाश की सीमा कम तो नहीं?
एक टूटे हुए सपने के टुकड़ों से,
एक नया सपना संजोया है,
कही वो जुर्म तो नहीं?
एक संकुचित तन ने,
कुछ पैर पसारने की तम्मना की है,
कहीं ये सितम तो नहीं?
एक बुझे हुए मन ने,
फिर जलने की हिम्मत की है,
कहीं इसी का नाम जीवन तो नहीं?